Mata Ka Aanchal Class 10 Hindi | माता का आंचल | Summary | Hindi Kritika |
Mata Ka Aanchal Class 10 Hindi | माता का आंचल | Summary | Hindi Kritika | सार | सारांश | शिवपूजन सहाय |
माता का आंचल पाठ का सार
लेखक – शिवपूजन सहाय
शिवपूजन सहाय का जीवन परिचय : शिवपूजन सहाय का जन्म 9 अगस्त 1893, गांव उनवांस, शाहाबाद, बिहार में हुआ तथा उनकी मृत्यु मृत्यु- 21 जनवरी 1963 को पटना में हुई | शिवपूजन सहाय एक कहानीकार निबंधकार तथा उपन्यासकार थे वे आंचलिक कहानियों और उपन्यासों के लेखन के लिए विशिष्ट रूप से जाने जाते हैं | उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1960 में प्रतिष्ठित पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया था।
शिवपूजन सहाय की प्रारम्भिक शिक्षा आरा (बिहार) में हुई। 1921 में इन्होंने कोलकाता से अपने पत्रकारिता जीवन का आरंभ किया l इन्होंने महान कहानीकार मुंशी प्रेमचंद के साथ कार्य करते हुए 1924 में लखनऊ से ‘माधुरी’ का सम्पादन आरंभ किया। 1926 से 1933 तक काशी में रहते हुए उन्होंने पत्रकारिता एवं साहित्य लेखन का कार्य किया । 1934 से 1939 तक पुस्तक भंडार, लहेरिया सराय में सम्पादन-कार्य किया। 1939 से 1949 तक राजेंद्र कॉलेज, छपरा में हिंदी के प्राध्यापक रहे। 1950 से 1959 तक पटना में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के निदेशक के पद पर कार्य किया । 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा दी. लिट्. की मानद उपाधि इनको प्रदान की गई |
इनके लिखे हुए प्रारम्भिक लेख ‘लक्ष्मी’, ‘मनोरंजन’ तथा ‘पाटलीपुत्र’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। शिवपूजन सहाय ने 1934 ई. में बिहार के दरभंगा जिले के ‘लहेरियासराय’ नामक स्थान से मासिक पत्र ‘बालक’ का सम्पादन आरंभ किया। स्वतंत्रता के बाद शिवपूजन सहाय बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के संचालक तथा बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से प्रकाशित ‘साहित्य’ नामक शोध-समीक्षाप्रधान त्रैमासिक पत्र के सम्पादक के पद पर नियुक्त हुए । इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन की एक लंबी अवधि को साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र को समर्पित किया |
प्रमुख रचनाएं – तूती- मैना, देहाती दुनिया, मेरा जीवन, ग्राम सुधार, वे दिन वे लोग आदि |
संपादन कार्य – शिवपूजन सहाय एक लंबे समय तक पत्रकारिता से भी जुड़े रहे और उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया l इनके द्वारा संपादित प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में मारवाड़ी सुधार, मतवाला, माधुरी, मौजी, गोलमाल, जागरण, बालक, हिमालय तथा साहित्य पत्रिका विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं |
वर्णित विषय – शिवपूजन सहाय की पहचान एक आंचलिक साहित्यकार के रूप में अधिक है l इन्होंने ग्रामीण जीवन और ग्रामीण मान्यताओं को लेकर साहित्य सृजन किया l इनके साहित्य में देशज शब्दावली की बहुलता मिलती है l इस प्रकार यह ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने ग्रामीण जीवन को बहुत करीब से देख कर उसका सूक्ष्मता के साथ में साहित्य में चित्रण करने का प्रयास किया l
माता का आंचल -‘ माता का आंचल’ के लेखक शिवपूजन सहाय हैं। दरअसल “माता का अंचल” शिवपूजन सहाय के सन 1926 में प्रकाशित उपन्यास “देहाती दुनिया” का एक छोटा सा अंश (छोटा सा भाग) हैं। इसमें लेखक शिवपूजन सहाय ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि एक बच्चा जब भयभीत होता है, तो वह सारी दुनिया को भूल कर अपनी माता के आंचल में जा छिपता है और वही उसे उस समय सबसे सुरक्षित स्थान महसूस होता है | एक बच्चे के लिए माता के आंचल से सुरक्षित स्थान और कोई हो ही नहीं सकता है l इस कहानी में लेखक ने सहज एवं सरल ग्रामीण भाषा का प्रयोग करते हुए, माता – पिता के वात्सल्य एवं बच्चों के स्वाभाविक खेलों का बहुत ही सूक्ष्मता के साथ में चित्रण किया है I
माता का आंचल पाठ का सार/Summary of Mata ka Aanchal
यह कहानी आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है| जिसमें लेखक शिवपूजन सहाय अपने ही बचपन की घटनाओं का जिक्र करते हुए यह बता रहे हैं कि एक बच्चे के लिए उसकी माता के आंचल से सुरक्षित स्थान कोई नहीं हो सकता है I जब बच्चा सबसे अधिक अधिक भयभीत होता है तो वह सभी को छोड़कर केवल अपनी माता के आंचल में जा छिपता है और वहां जाकर अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है|
शिवपूजन सहाय बताते हैं कि उनका बचपन का नाम “तारकेश्वरनाथ” था। मगर घर में सभी लोग प्यार से उन्हें “भोलानाथ” कहकर बुलाते थे । भोलानाथ अपने पिता को “बाबूजी” व माता को “मइयाँ ” कहते थे। बचपन में लेखक का झुकाव अपने पिता की ओर अधिक था , वे अधिकांश समय अपने पिता के साथ ही रहते थे । वो अपने पिता के साथ ही सोते , उनके साथ ही जल्दी सुबह उठकर स्नान करते और अपने पिता के साथ ही भगवान की पूजा अर्चना करते थे।
वो अपने बाबूजी से अपने माथे पर त्रिपुंड का तिलक लगवाकर बहुत खुश होते थे। उनके बाल बड़े थे और उनकी माता जी ऊपर की ओर एक चोटी कर देती थी| और फिर जब उनके पिताजी उनके माथे पर त्रिपुंड का तिलक लगा देते तो बालक था तारकेश्वर नाथ सच में ठीक भोले शंकर का अवतार दिखलाई पड़ता था यही कारण था कि सभी लोग उन्हें प्यार से भोलानाथ कह कर पुकारते थे | जब भी भोलानाथ के पिताजी रामायण का पाठ करते, तब भोलानाथ उनके बगल में बैठ कर अपने चेहरे का प्रतिबिंब आईने में देख कर खूब खुश होते। पर जैसे ही उनके बाबूजी की नजर उन पर पड़ती। तो वो थोड़ा शर्माकर, थोड़ा मुस्कुरा कर आईना नीचे रख देते थे। उनकी इस बात पर उनके पिता भी मंत्रमुग्ध होकर मुस्कुरा उठते थे।
पूजा अर्चना करने के बाद उनके पिताजी राम नाम लिखी कागज की पर्चियों में छोटी -छोटी आटे की गोलियां रखकर उन्हें मछलियों को खिलाने के लिए गंगा घाट की ओर चल देते और उस समय बालक भोलानाथ उनके कंधे पर बैठकर गंगा जी के पास जाते। अपने बाबू जी के कंधे पर बैठ कर जाते समय बालक भोलानाथ अपने आप को किसी बादशाह से कम ने समझते थे और गंगा घाट पर जाकर वे उन आटे की गोलियां को मछलियों को खिला देते थे।
उसके बाद वो अपने बाबूजी के साथ घर आकर खाना खाते। भोलानाथ की मां उन्हें अनेक पक्षियों के नाम से निवाले बनाकर बड़े प्यार से खिलाती थी। भोलानाथ की माँ भोलानाथ को बहुत लाड -प्यार करती थी। वह कभी उन्हें अपनी बाहों में भर कर खूब प्यार करती, तो कभी उन्हें जबरदस्ती पकड़ कर उनके सिर पर सरसों के तेल से मालिश करती। इस प्रकार बालक भोलानाथ अपनी मां और अपने बाबू जी दोनों का बहुत चहेता था |
लेखक उस समय बहुत छोटे थे , इसलिए वह बात-बात पर रोने लगते। उन्हें रोता हुआ देखकर उनके बाबूजी भोलानाथ की मां से नाराज हो जाते थे। लेकिन भोलानाथ की मां उनके बालों को अच्छे से सवाँर कर, उनकी एक अच्छी सी चोटी बनाकर उसमें फूलदाऱ लड्डू लगा देती थी और साथ में बालक भोलानाथ को रंगीन कुर्ता व टोपी पहना कर उन्हें “कन्हैया” जैसा बना देती थी।
बालक भोलानाथ अपनी उम्र के बच्चों के साथ खूब मौजमस्ती और तमाशे करते। उनके खेलों में अलग – अलग तरीके के नाटकों के माध्यम से सामाजिक जीवन का ज्ञान छिपा हुआ होता था । कभी चबूतरे का एक कोना ही उनका नाटक घर बन जाता तो , कभी बाबूजी की नहाने वाली चौकी ही रंगमंच बन जाती। कभी वह अपने साथियों के साथ खेती-बाड़ी करने लगते I तो कभी मिट्टी की लड्डू पूरियां बनाकर ज्योनार बिठा देते | कभी वे गुड्डे – गुड़ियों का ब्याह रचाने लगते ,तो कभी-कभी बच्चे बारात का भी जुलूस निकालते थे। जिसमें तंबूरा और शहनाई भी बजाई जाती थी। दुल्हन को भी विदा कर लाया जाता था। कभी-कभी बाबूजी दुल्हन का घूंघट उठा कर देख लेते तो , सब बच्चे हंसते हुए वहां से भाग जाते थे। कभी व्यापार – व्यवसाय करने लग जाते, दुकानें सजाई जाती, उनमें सभी सामान रखा जाता और कागज के रूपयों से लेन – देन होने लगता | इस प्रकार वे खेल – खेल में सामाजिक जीवन को जीना सीख रहे थे |
बाबूजी भी अक्सर बच्चों के खेलों में भाग लेकर उनका आनंद उठाते थे। बाबूजी बच्चों से कुश्ती में जानबूझ कर हार जाते थे | और उस समय बच्चों के चेहरे पर जो खुशी दिखाई देती थी उससे बाबूजी गद – गद हो उठते थे|
एक दिन सभी बच्चे आम के बाग़ में खेल रहे थे। तभी बड़ी जोर से आंधी आई और आकाश बादलों से ढक गया, उसके बाद देखते ही देखते खूब जम कर बारिश होने लगी। काफी देर बाद जब बारिश बंद हुई तो बाग मैं बहुत सारे बिच्छू निकल आए , जिन्हें देखकर सारे बच्चे डर के मारे भागने लगे।
संयोगवश रास्ते में उन्हें मूसन तिवारी जी मिल गए। भोलानाथ के एक दोस्त बैजू ने उन्हें चिढ़ा दिया। फिर क्या था बैजू की देखा देखी सारे बच्चे मूसन तिवारी को चिढ़ाने लगे। मूसन तिवारी ने सभी बच्चों को वहाँ से खदेड़ा और सीधे पाठशाला चले गए। पाठशाला में उनकी शिकायत गुरु जी से कर दी। गुरु जी ने सभी बच्चों को स्कूल में पकड़ लाने का आदेश दिया। सभी को पकड़कर स्कूल पहुंचाया गया। दोस्तों के साथ भोलानाथ को भी जमकर गुरु जी की मार पड़ी।
जब बाबूजी इस घटना की सूचना पहुंची तो , वो दौड़े-दौड़े पाठशाला पहुंचे । जैसे ही भोलानाथ ने अपने बाबूजी को देखा तो वो दौड़कर बाबूजी की गोद में चढ़ गए और रोते-रोते बाबूजी का कंधा अपने आंसुओं से भिगो दिया। बाबू जी ने गुरुजी से बच्चों की गलती के लिए माफी मांगी और भोलानाथ को अपने साथ घर ले आए |
भोलानाथ काफी देर तक बाबूजी की गोद में भी रोते रहे। लेकिन जैसे ही रास्ते में उन्होंने अपनी मित्र मंडली को देखा तो वो अपना रोना भूलकर मित्र मंडली में शामिल हो गए। मित्र मंडली उस समय चिड़ियों को पकड़ने की कोशिश कर रही थी। भोलानाथ भी चिड़ियों को पकड़ने लगे। चिड़ियाँ तो उनके हाथ नहीं आयी परंतु बच्चे खेलते खेलते मिट्टी के टीलों पर जा पहुंचे , जहां उन्हें चूहों के बहुत सारे बिल दिखाई दिए| किसी बच्चे के मन में चूहों के बिल में पानी डालने का विचार आया और सभी बच्चे पानी ला – लाकर चूहों के बिलों में डालने लगे ।
किसी भी बिल में से कोई चूहा तो बाहर नहीं निकला परंतु एक जिनमें से अचानक एक काला भयंकर सांप बाहर निकल आया । सांप को देखते ही सारे बच्चे डर के मारे भागने लगे। भोलानाथ भी डर के मारे भागे। और गिरते-पड़ते , कांटों , झाड़ियों एवं रास्ते के कंकड़ों की परवाह नहीं करते हुए भोलानाथ जैसे-तैसे घर पहुंचे। सामने बाबूजी बैठ कर हुक्का पी रहे थे। उन्होंने जब भोलानाथ को इस तरीके से डरे हुए देखा , तो अपने पास बुलाने की भरपूर चेष्टा की लेकिन भोलानाथ जो अधिकतर समय अपने बाबूजी के साथ बिताते थे , उस समय बाबूजी के पास न जाकर सीधे अंदर अपनी मां की गोद में जाकर छुप गए।
डर से काँपते हुए भोलानाथ को देखकर मां घबरा गई । माँ ने भोलानाथ के जख्मों की धूल को साफ कर उसमें हल्दी का लेप लगाया और उन्हें अपने सीने से लगा लिया । डरे व घबराए हुए भोलानाथ को उस समय पिता की मजबूत बांहों के सहारे व दुलार के बजाय अपनी मां का आंचल ज्यादा सुरक्षित व महफूज लगने लगा ।
इस प्रकार इस कहानी के माध्यम से लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है I एक बच्चे को उसके पिता भले ही कितना ही प्यार दुलार क्यों नहीं करें परंतु संकट की घड़ी में उसे अपनी माता का आंचल ही सबसे सुरक्षित और महफूज महसूस होता है|
NCERT Solutions for माता का आँचल
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न- उत्तर
प्रश्न 1. प्रस्तुत पाठ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बच्चे का अपने पिता से अधिक जुड़ाव था, फिर भी विपदा के समय वह पिता के पास न जाकर माँ की शरण लेता है। आपकी समझ से इसकी क्या वजह हो सकती है?
उत्तर- माता का आंचल कहानी में बालक भोलानाथ का लगाव अपने पिता से अधिक था | वे हर समय अपने पिता के पास खेलते रहते थे | उनके साथ पूजा – अर्चना करते थे | मछलियों को चारा खिलाने जाते थे और उनके बाबूजी उनके बाल सुलभ खेलों में भी शरीक होकर उनका आनंद बढ़ा देते थे l इस प्रकार बालक भोलानाथ अपना अधिकांश समय अपने पिताजी के साथ ही बिताते थे |
परंतु जब बालक भोलानाथ सांप से डर कर बेतहाशा दौड़ते हुए घर पहुंचते हैं तो पिताजी के बार-बार बुलाने पर भी वह उनके पास न जाकर अपनी माता के आंचल में जा छुपते हैं | यह घटना यह सिद्ध करती है कि पिताजी चाहे बच्चे को कितना ही प्यार कर ले , परंतु जब बच्चा संकट में होता है अथवा डरा हुआ होता है, तो उसे उस समय सबसे अधिक आवश्यकता अपनी माता के स्नेह, दुलार एवं संरक्षण की होती है | वह अपनी माता की गोद में पहुंचकर ही अपने आप को सुरक्षित और भयमुक्त पाता है | इस प्रकार बच्चे के जीवन में उसकी माता का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है |
प्रश्न 2. आपके विचार से भोलानाथ अपने साथियों को देखकर सिसकना क्यों भूल जाता है?
उत्तर- बच्चों को खेल बहुत प्रिय होते हैं और वे अपने साथियों के बीच पहुंचकर खेल में मगन हो जाते हैं| उस समय उन्हें किसी प्रकार की पीड़ा या दुख नहीं होता | उनके मन का सारा रोष और अवसाद छू – मंतर हो जाता है और अपने साथियों के बीच में एक रोता हुआ बच्चा भी खिलखिला करके हंस पड़ता है| वह अपनी हंसी में सारे दुख भुला देता है| बच्चों में किसी प्रकार का दुराभाव भी नहीं पाया जाता है| वे साफ व स्वच्छ मन के होते हैं और खेल में लगकर पहले की सारी मार – पिटाई , डांट – डपट को भुला देते हैं| उनके लिए जीवन एक खेल की भांति ही होता है और वे इसका भरपूर आनंद उठाते हैं|
प्रश्न 3. आपने देखा होगा कि भोलानाथ और उसके साथी जब-तब खेलते-खाते समय किसी न किसी प्रकार की तुकबंदी करते हैं। आपको यदि अपने खेलों आदि से जुड़ी तुकबंदी याद हो तो लिखिए।
उत्तर- बचपन में अक्सर बच्चे तुकबंदी किया करते हैं और तुकबंदी से वह आनंद प्राप्त करते हैं इन तुकबंदी यों का उद्देश्य केवल मनोरंजन प्राप्त करना होता है बचपन में इस प्रकार की अनेक तुकबंदी या आप लोगों ने बनाई होंगी जैसे कि हम लोगों के बचपन में कुछ हम कुछ इस प्रकार की तुकबंदियां किया करते थे |
- तख्ती पे तख्ती, तख्ती पे दाना |
कल की छुट्टी, परसों आना |
- ग्यारह गए, बारह बज गए , ऊपर बज गया एक
मास्टर जी छुट्टी कर दो, भूखा मर गया पेट |
प्रश्न 4. भोलानाथ और उसके साथियों के खेल और खेलने की सामग्री आपके खेल और खेलने की सामग्री से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर- भोलानाथ और उनके साथियों के खेलने की सामग्री आज की बच्चों की खेलने की सामग्री से बिल्कुल अलग होती थी| उस समय लोगों के पास पैसे का अभाव होता था | साथ ही लोग मितव्यय़ी भी होते थे, इसलिए अक्सर बच्चों को खिलौने खरीद कर लाकर नहीं दिए जाते थे | बच्चे अपने आस – पास की अनुपयोगी वस्तुओं से ही खेलने की सामग्री बना लिया करते या फिर वे शारीरिक क्रियाओं पर आधारित खेलों से ही आनंद प्राप्त किया करते थे | परंतु आजकल ऐसा नहीं है, आजकल माता – पिता अपने बच्चों के लिए नए – नए खिलौने बाजार से लाकर देते हैं | पहले भी बच्चों में सामूहिक खेलों के द्वारा सामाजिक गुणों का विकास होता था परंतु आजकल बच्चे एकांकी होकर खेलते हैं, जिसके कारण उनमें सामाजिक गुणों का उचित विकास नहीं हो पाता है |
प्रश्न 5. पाठ में आए ऐसे प्रसंगों का वर्णन कीजिए जो आपके दिल को छू गए हों?
उत्तर- पाठ में लेखक में अनेक रोमांचक प्रसंगों का उल्लेख किया है l जिनमें सबसे अधिक रोमांचक प्रसंग वह है जब बच्चे खेल – खेल में चूहों के बिल में पानी डालने लगते हैं और चूहों को बाहर निकालने का प्रयास करते हैं l उनके इस प्रयास में चूहे तो बाहर नहीं निकलते परंतु एक बिल से एक भयंकर काला सांप निकल आता है , जिसे देखकर बच्चे डर से कांपने लगते हैं और चीखते – चिल्लाते बेतहाशा दौड़ पड़ते हैं| बालक भोलानाथ भी उस सांप से डर कर भयभीत होकर दौड़ता हुआ अपने घर पहुंचता है और अपनी माता के आंचल में जा छुपता है| यह प्रसंग हमारे अंतर्मन को छू जाता है| पाठ में अनेक अन्य प्रसंग भी हैं जो हमें अभिभूत कर देते हैं , जैसे बच्चों का अलग-अलग प्रकार के खेल खेलना, तुकबंदियों मे अपनी बातें कह जाना , किसी को चिढ़ाने में आनंद प्राप्त करना आदि| यह सभी बाल अठखेलिया हमारे मन को छू जाती हैं|
प्रश्न 6. इस उपन्यास के अंश में तीस के दशक की ग्राम्य संस्कृति का चित्रण है। आज की ग्रामीण संस्कृति में आपको किस तरह के परिवर्तन दिखाई देते हैं।
उत्तर- आज की ग्रामीण संस्कृति तीस के दशक की ग्रामीण संस्कृति से पूरी तरीके से भिन्न हो चुकी है| तीस के दशक की ग्रामीण संस्कृति आज सपनों जैसी प्रतीत होती है| उस समय लोगों में आपसी प्रेम , सहयोग एवं सद्भाव था| जीवन सरल और सादगी से परिपूर्ण था| बच्चों के खेल भी स्वाभाविक एवं सामूहिक गतिविधियों पर आधारित होते थे| आज ग्रामीण जीवन पूरी तरीके से बदल चुका है| लोगों के मध्य आपसी प्रेम एवं सद्भाव में कमी आ रही है, परिवार एकांकी होते जा रहे हैं तथा बच्चों के खेल कूद बदल रहे हैं|
प्रश्न 7. पाठ पढ़ते-पढ़ते आपको भी अपने माता-पिता का लाड़-प्यार याद आ रहा होगा। अपनी इन भावनाओं को डायरी में अंकित कीजिए।
उत्तर-
रेवाड़ी
23 अक्तूबर, 20XX, बुधवार
रात्रि 9 : 30 बजे
आज मैंने कक्षा में ‘माता का आंचल’ पाठ पढ़ा| इस पाठ को पढ़कर मुझे अपने माता – पिता का प्यार – दुलार और बचपन की खट्टी – मीठी यादों की स्मृति हो आई| आज छात्रावास में रहते हुए माता से दूर होकर भी इस पाठ को पढ़कर मेरा हृदय माता के प्यार की अनुभूति से गद – गद हो उठा है| आज मुझे याद आ रहा है कि माता जी कैसे मुझे प्रेम से अपनी गोद में बिठाकर खाना खिलाती थी और कैसे बाबूजी मुझे अपने कंधों पर बिठाकर गांव भर में घुमाया करते थे| आज मुझे मां – बाबूजी की बहुत याद आ रही है| मैंने रात्रि का भोजन कर लिया है और अब मैं सोने जा रहा हूं l
मनोज कुमार चौहान
प्रश्न 8. यहाँ माता-पिता का बच्चे के प्रति जो वात्सल्य व्यक्त हुआ है उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर- इस पाठ में माता-पिता का बच्चे के प्रति वात्सल्य एवं प्रेम भाव बड़ी सूक्ष्मता के साथ चित्रित हुआ है | बाबूजी के द्वारा अपने साथ शिशु को नहला-धुलाकर पूजा में बिठा लेना, माथे पर तिलक लगाना फिर कंधे पर बैठाकर गंगा पर मछलियों को चारा खिलाने ले जाना और लौटते समय पेड़ों की शाखाओं पर बैठाकर शिशु भोलानाथ को झूला झुलाना बहुत ही मनोहारी दृश्य उत्पन्न करता है।
पिता के साथ कुश्ती लड़ना, बच्चे के गालों का चुम्मा लेना, बच्चे के द्वारा पूँछे पकड़ने पर बनावटी रोना रोने का नाटक और शिशु को हँस पड़ना अत्यंत जीवंत लगता है।
माँ के द्वारा गोरस-भात, तोता-मैना आदि के नाम पर खिलाना, उबटना, शिशु का श्रृंगार करना और शिशु का सिसकना, बच्चों की टोली को देख सिसकना बंद कर विविध प्रकार के खेल खेलना और मूसन तिवारी को चिढ़ाना आदि दृश्य बाल मनोविज्ञान एवं बाल कीड़ाओं का सुंदर चित्र प्रस्तुत करते हैं| ये सभी दृश्य हमें अपने बचपन की याद दिलाते हैं।
प्रश्न 9. माता का आंचल शीर्षक की उपयुक्तता बताते हुए कोई अन्य शीर्षक सुझाइए।
उत्तर- माता का आंचल इस पाठ के लिए पूर्णतया उपयुक्त शीर्षक प्रतीत होता है, क्योंकि इस पाठ में दिखाया गया है कि एक बच्चा किस प्रकार अपने बाबू जी के साथ बहुत अधिक घुला मिला हुआ है| वह दिन भर अपने बाबूजी के साथ ही रहता है और अपना अधिकांश समय बाबूजी के साथ खेलते हुए अथवा घूमते हुए बिताता है| परंतु जब उसे संकट का आभास होता है, उसका मन भयभीत हो उठता है तो वह अपनी बाबूजी की गोद में ना जाकर अपनी माता की गोद में जा छुपता है और वहीं पर उसका भय़ कम होता है , वहीं पर उसे सच्चे सुकून की प्राप्ति होती है| इस प्रकार यह कहानी दिखाती है कि बच्चे को भले ही कोई कितना ही प्रेम करें परंतु बच्चे को वास्तविक सुरक्षा एवं संरक्षण का आभास अपनी माता की गोद में ही होता है| अतः कहानी का शीर्षक माता का आंचल पूर्णतया उपयुक्त प्रतीत होता है|
प्रश्न 10. बच्चे माता-पिता के प्रति अपने प्रेम को कैसे अभिव्यक्त करते हैं?
उत्तर- बच्चे अपने माता-पिता के प्रति अपने प्रेम को अपने हाव-भाव एवं क्रियाओं के माध्यम से व्यक्त करते हैं| जैसे कभी वे माता-पिता को देख कर मुस्कुरा उठते हैं, खिलखिला उठते हैं, तो कभी दौड़ कर उन्हें अपनी बाहों में भर लेते हैं | कभी अपनी क्रियाओं के माध्यम से उनका ध्यान अपनी और आकर्षित करने का प्रयास करते हैं | इस प्रकार बच्चे अपने हाव-भाव एवं अपने क्रियाओं के माध्यम से अपने प्रेम को प्रकट करते हैं |
प्रश्न 11. इस पाठ में बच्चों की जो दुनिया रची गई है वह आपके बचपन की दुनिया से किस तरह भिन्न है?
उत्तर- इस पाठ में दिखाया गया गया बचपन हमारे बचपन से बहुत अलग है। यह कहानी उस समय की है, तब माता – पिता के पास अपने बच्चों के लिए भरपूर समय होता था और वे अपने बच्चों के साथ दिन भर हंसते खिलखिलाते रहते थे| उस समय बच्चों के पास आज की तरह खेलने के लिए महंगे महंगे खिलौने भी नहीं होते थे| वे अपने आस – पास की अनुपयोगी वस्तुओं से ही अपने खेलने की सामग्री बना लिया करते थे | लेकिन हमारे बचपन यानी अब की बात की जाए तो हमें अपने माता-पिता से इतना लाड़, प्यार नहीं मिल पाया । पहला कारण तो यह था कि आज – कल के पिताओं को कमाने की आपा – धापी में अपने बच्चों के लिए समय ही नहीं मिल पाता है और दूसरा कारण यह की आज के बच्चों को खेलने-कूदने के लिए अनेक प्रकार के खिलौने मिल जाते हैं और अधिकतर बच्चे तो मोबाइल फोन , टीवी, वीडियो गेम्स, कंप्यूटर व लैपटॉप आदि में ही अपना अधिकांश समय बिता देते हैं| उनके पास भी माता-पिता , दादा-दादी के पास बैठकर उनकी बातें सुनने या उनके साथ खेलने का समय नहीं रहता है , और ना ही जीवन की व्यस्तता के चलते बड़ों के पास बच्चों के लिए समय होता है । इसलिए हमारा बचपन इस पाठ में रचित की गई दुनिया से बहुत विभिन्न था।
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