राग वर्गीकरण Notes Class 12 | Classification of Ragas | Hindustani Music |

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राग वर्गीकरण Notes Class 12 | Classification of Ragas | Hindustani Music | CBSE |

Raag Vargikaran (Classification of Ragas)

प्र. राग वर्गीकरण के बारे में आप क्या जानते है विस्तार से लिखिए ।

उत्तर:  राग वर्गीकरण – संगीत के क्रमिक विकास के साथ और समय के परिवर्तन के अनुसार संगीत का जो रूप रहा है उसका अध्ययन भरत द्वारा लिखित नाट्यशास्त्र संगीत का प्रमाणिक ग्रंथ मिलता है । वैसे तो यह ग्रंथ नाट्य पर आधारित है , परन्तु नाट्य से संबंधित संगीत का पूरा विवरण इस ग्रंथ से प्राप्त होता है । भारत के प्राचीन संगीतज्ञों विद्वानों के कुछ प्राचीन ग्रंथों में रागों का वर्गीकरण रागिनी , पुत्रवधु , पुत्र राग आदि से किया गया है जैसे – जैसे समय में परिवर्तन हुआ विभिन्न प्रकार के राग वर्गीकरण बने उन राग वर्गीकरणों का वर्णन निम्न प्रकार से है ।

  1. जाति वर्गीकरण– भरत के समय में जाति गायन प्रचार में था । जातियों एक प्रकार की धुनों की तालबद्ध रचनाएँ थी । भरत जाति की व्याख्या में लिखते है कि स्वरों और वर्णों से युक्त रचना को जाति कहते है । जैसे आधुनिक समय में राग गायन का प्रचलन है, ठीक उसी प्रकार प्राचीन काल में जाति गायन का प्रचलन था । प्राचीन काल में भरतमुनि ने अपने ग्रंथ में पड़ज ग्राम , मध्यम ग्राम और गांधार ग्राम मुख्य तीन ग्राम माने थे । लेकिन इनमे से गांधार ग्राम लुप्त हो गया था और शेष दो ग्रामों से 11 जातियाँ उत्पन्न हुई । ( शेष दो ग्रामों से पडज ग्राम से 7 और मध्यम ग्राम से 11 कुल 18 जातियों का उल्लेख किया है । )
  2. ग्राम राग वर्गीकरण – राग शब्द का स्पष्ट वर्गीकरण हमें सबसे पहले मतंग कृत बृहदेशी में मिलता है । उन्होंने राग वर्गीकरण के लिए ग्राम राग शब्द का प्रयोग किया है । राग भी जाति के समान सुंदर- गेय रचना थी । उन्होंने भरत द्वारा 18 जातियों में से 30 ग्राम रागों की उत्पत्ति मानी और उन्हें शुद्ध , भिन्ना , गौड़ी बेसरा तथा साधारणी पाँच गीतियों में विभाजित किया । इसके अतिरिक्त उन्होंने भाषा रागों का भी उल्लेख किया है और इन्हे भाषा और विभाषा नामक दो गीतियों के अंतर्गत रखा है ।
  3. संगीत रत्नाकर का दस दिघि राग वर्गीकरण– पंडित शारंगदेव ने राग वर्गीकरण के लिए एक और तो ग्राम मूर्च्छना व्यवस्था को लिया तथा दूसरी और मध्य युग की राग – रागिनी परंपरा को अपनाया है । इन्होंने ग्राम राग और देशी राग वर्गीकरण के अंतर्गत ग्राम राग , राग , उपराग , भाषा , विभाषा , अन्तरभाषा , रागांग , भाषांग , क्रियागं , उपांग आदि दस प्रकारों का वर्णन किया है । इन्होंने राग विवेक – अध्याय के पहले प्रकरण म मार्गी रागों का और दूसरे प्रकरण में देशी रागों का उल्लेख किया है ।
  4. शुद्ध , छायालग और संर्कीण राग –जिस प्रकार भरत , मतंग और शारंगदेव जी ने अपने – अपने राग वर्गीकरण किए उसी प्रकार प्राचीन समय में शुद्ध , छायालग और सर्कीण रागों का वर्गीकरण भी प्रचार में आता है । इनका वर्गीकरण भी निम्न प्रकार से है-

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(अ) शुद्ध राग -जिन रागों में शास्त्र के नियमों का प्रयोग शुद्ध रूप से होता है उसे शुद्ध राग कहते है । शुद्ध रागों के गायन वादन में किसी दूसरे राग की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती । अपितु उसका पूर्ण रूप अपने ही स्वरों के द्वारा प्रदर्शित होता है । शुद्ध राग स्वतंत्र राग होते है और आज हमारे दसों आश्रय राग शुद्ध रागों की श्रेणी में आते है । जैसे- बिलावल , भैरवी , तौडी आदि राग शुद्ध रागों की श्रेणी में आते है ।

(ब)  छायालग राग – वे राग जो किन्हीं दो रागों के मेल से बनते है तथा जिन रागों के गायन , वादन में किसी अन्य राग की छाया आती है उन्हें छायालग राग कहते है । जैसे -राग जयजयवंती में देश राग की छाया आती है ।

(स). संकीर्ण राग – संकीर्ण राग वे होते है जो शुद्ध और छायालग रागों के मिश्रण से बनते है । सर्कीण रागों मे ठुमरी  अधिक गाई जाती है । संकीर्ण रागों में अन्य रागो का मिश्रण मधुरता बढ़ाने के लिए किया जाता है। जैसे भैरवी , पीलू , ख़माज आदि राग संर्कीण रागों की श्रेणी में आते है ।

  1. मेल राग / थाट राग वर्गीकरण – मेल राग वर्गीकरण आधुनिक काल में जिसे हम थाट कहते है , प्राचीन काल में उसे मेल कहते थे । अतः मेल को आधुनिक थाट का पर्यायवाची कहा जा सकता है । जिस प्रकार आज के समय में पं० विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने 10 थाटों के अंतर्गत समस्त हिन्दुस्तानी रागों का वर्गीकरण किया है । उसी प्रकार मध्यकाल मे अनेक विद्वानों ने थाटो की संख्या अलग – अलग मानकर रागों का वर्गीकरण किया । जैसे पं० व्यक्टमुखी ने 72 थाट माने , रामामात्य जी ने स्वर मेल कला निधि मे 20 थाट माने और हृदय नारायण जी ने 18 थाट माने है ।
  2. राग – रागिनी वर्गीकरण – मध्यकाल में कुछ रागों को स्त्री – पुरुष मानकर रागो की वंश परंपरा मानी गई है । इसी आधार पर राग – रागिनी पद्धति या जन्म हुआ । प्राचीन संगीतकारों ने रागों का सीधा संबंध हमारे देवी – देवताओं से जोड़ा । मध्यकालीन युग के महान संगीतकार पंडित दामोदर ने पुरुष रागो को देवताओं स और स्त्री रागो का संबंध देवियों से जोड़ा और पुरुष व स्त्री रागों से उत्पन्न पुत्र एवं उनकी पुत्र वधुएं मानकर राग – रागिनी वर्गीकरण पद्धति की स्थापना की ।
  3. रागांग वर्गीकरण – मुंबई के स्वर्गीय नारायण मोरेश्वर खरे न तीस रागों के अंतर्गत समस्त रागों को विभाजित किया । समस्त रागों को विभाजित करने का सूक्ष्म निरीक्षण करने के बाद उन्होंने तीस स्वर – समुदाय चुने । यह समुदाय प्रमुख था और उसे बिलावल अंग की संज्ञा दी गई ।

प्राचीन काल में की यह प्रथा चलती गई परन्तु मध्यकाल में इस प्रथा के समर्थक कम रह गए । प्राचीन काल से आजतक राग वर्गीकरण के जितने विभाजन हो चुके है उनमें से आधुनिक काल का थाट राग वर्गीकरण सर्वोत्तम है ।

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